धूल चढ़ी डायरी के पिछले पन्ने
में सिमटा हुआ मिला एक फूल।
जिसकी अब खुशबू जुदा है,
रंग भी मायूस सा है,
पर उसे देखते ही,
मेरे चेहरे पे झट से यूं आती है जो सुर्खी।
कि याद आती है
वो झुकी आंखों की कुछ बातें,
न कटने वाली स्याह, लंबी रातें।
वो बिन मतलब मुस्कुराना,
और बातों बातों में, खामोश हो जाना।
अब जिंदगी में कुछ ऐसे मसाइल है
जिनकी पेचीदगी को सुलझाने में,
अकेले पड़ गए दोनों।
मुलाकातों में भर गई तन्हाईयां
वो दिन कहाँ अब याद आते हैं।
क्यों ना हम तुम इन्हीं रिश्तों के सहरा में,
वो डायरी के फूल
ज़मीं में बो दे साथ मिल के।
जिन्हें छूने भर से ही
मेरे गालों में हो सुर्खी,
और तुम्हारी आंखों में भी,
फिर वही शरारत सी आ जाए।
। भावना ।
4 Dec 2024

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