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  • जहाँ शब्द चुपचाप रहते हैं

    कि कविताएं लिखने का मुझे नहीं ज़रा भी अभिमान हैं,
    क्योंकि घर मेरा ही कविताओं की मुफ़्त दुकान है।

    उल्लास भी यहीं, प्रेरणा भी यहीं,
    दिल चीरने वाली वेदना भी यहीं।
    घर की हर दीवार पर छपी हैं बातें,
    अलमारियों में कैद, दबे पाँव सिमटी यादें।

    वो देखो, थोड़ा बेरंग-सा, धूल चढ़ा हुआ,
    टकटकी लगाए कील पर झूलता एक चित्र।
    सालों पहले जन्मदिन पर मेरे, पाई-पाई जोड़कर,
    हैसियत से बड़ी दुकान से लाए थे मेरे मित्र।

    ये आईने का कैसा प्रेम है भला,
    कि माँ की सुर्ख़ बिंदियां चिपकी रहती है वहीँ।
    और दीवारों पर पेंसिलों से खुरची कद नापती लकीरें
    भागती बेलों-सी, धूप पकड़ने निकल चली है कहीं।

    केसर के कहवे की खुश्बू,
    बेरंग कैलेंडर की फ्रेम की हुई तस्वीर।
    सबको खुद-ब-खुद पता चलता हैं जनाब,
    अब हम नहीं बताते, हमारी सरज़मीन है कश्मीर।

    खनकती हँसी, सिसकती हिचकी या कोई शोरगुल,
    कहानियाँ, कविताएँ मुझे अक्सर पास बुलाती हैं।
    ना मैं कवि हूँ, ना कोई कहानीकार,
    दुनिया उधार देती है, उँगलियाँ कर्ज़ चुकाती हैं।

    । भावना ।
    04-12-2025